Thursday, September 16, 2010

वोह आँखें जिनमे थे हज़ार सपने.

वोह आँखें जिनमें थे हज़ार सपने। वोह नन्ही आँखें जो हरपल आसमान को घूरती रहती थी। कुछ ढूंडा करती थी। वोह आँखें थी शेखर की। हम सब की ज़िन्दगी में एक ऐसा पल आता है जो हमारी पूरी ज़िन्दगी को एक नयी मंजिल दे देता है। आज ऐसा ही एक पल शेखर की ज़िन्दगी में भी आया है।





आज गाँव में त्यौहार सा माहौल है। मेला सा लगा है। कल शाम को खबर आई थी के सरपंच जी आज गाँव को एक नया तोहफा देने जा रहे हैं। पर किसी को ये मालूम न था कि आखिर वह तोहफा है क्या। भीड़ बढती जा रही है। पंचायत के आगे कई पंडाल लगे हैं जिसमें लोग खचाखच जमा हैं। सबसे कि आगे कि लाइन में बच्चे बैठे हैं। सब सबसे अच्छी जगह घेरना चाहते हैं। इस वजह से कुछ लोगों में कहासुनी हो गयी और दो लोग तोह हाथापाई पर उतर आये। उनका झगडा इतना बढ़ गया के और लोगों को बीच बचाव करने आना पड़ा और पूरा गाँव दो खेमों में बात गया।





गाँव कस्बों के ऐसे झगड़ों में कुछ लोग डंडे लेकर हमेशा तैयार रहते हैं। ठीक ऐसा ही यहाँ भी हुआ। लोग भूल गए के वोह यहाँ आखिर आये किस लिए थे। उनके डंडों से किसी कर सर फूटता, इससे पहले ही सरपंच जी माइक पर आ गए और लोगों को शांत करने की कोशिश करने लगे। अपने लम्बे भाषण देने के लिए मशहूर सरपंच जी का पूरा वक़्त लोगों के झगडे सुलझाने में निकल गया। करीब आधे घंटे बाद मामला शांत हुआ और आखिरकार सरपंच जी बोलने के लिए माइक पर आ गए मगर शायद अब उनमें भी जान नहीं बची थी के खड़े होके कुछ बोले। बड़ी मुश्किल से ये कुछ शब्द उनके मुखमंडल से निकल सके।





"बिहारी जी, वोह जो लाये हैं, उसे चालु कर दीजिये।"





"जी बिलकुल, अभी लीजिये।" बिहारी जी बोले और एक बड़ा सा टेबल सरका के सामने लाये जिसपर कुछ कपडे से ढका रखा था।





बिहारी जी का चेहरा बता रहा था के वोह ये जानते हैं कि कपडे के नीचे क्या है और ये भी कि गाँव वाले कितना खुश होंगे ये देखके। बिहारी जी जोर से बोले।





"बच्चों, अब आप मेरे साथ बोलियेगा। एक..."





बच्चों ने भी बिहारी जी के सुर से सुर मिलाया


"एक"


"दो"


"तीन"





तीन कहते ही बिहारी जी ने एक झटके से वोह कपडा हटा दिया और गाँव वालों कि और बड़ी उत्सुकता से देखा। मगर गाँववालों ने कुछ ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी। शायद उनकी आँखों ने जो देखा वोह उन्हें पसंद नहीं आया या उन्हें समझ ही नहीं आया।





बिहारी जी को बोलना ही पड़ा।





"क्या आपमें से कोई बता सकता है कि ये क्या है।"





सबने ना में सर हिलाया।





"कोई बात नहीं, आप लोग कैसे बताओगे। हमें खुद कल इसका नाम पता चला है।" और बिहारी जी ने ये कहते हुए एक ज़ोरदार ठहाका लगाया। मगर गांववालों को ज़रा भी मज़ा नहीं बच्चों। क्या क्या कहते है इसे लगा था कि कपडे, अनाज, जैसा कुछ मिलेगा मगर सामनें तोह एक बदरंग सा बक्सा था।

"इसे कहते हैं टीवी"

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