Wednesday, September 29, 2010

जय हो गुंडे बाबा की

हमेशा की तरह हमने आज फिर मिलने का प्रोग्राम बनाया। और मैं हमेशा की तरह भागा भागा उससे मिलने के लिए घर से निकला। मेरी पसंदीदा टी-शर्ट पहनी, परफ्यूम लगाया और निकल पड़ा। मगर मेरे गोग्गल्स कहाँ हैं। मैंने इधर उधर देखा। मम्मी बोली, "तेरी गर्दन पे लटके हैं"। मैंने देखा और संतुष्ट हुआ। जैसे ही बाइक स्टार्ट की, सामने से एक बिल्ली गुज़र गयी। मम्मी बोली, "थोड़ी देर रुक के जा"। मगर मैं तो "इक्कीसवीं सदी का पढ़ा लिखा नौजवान" था। मैं इन सब बातों पर थोड़े ही विश्वास करूँगा। मैं मम्मी को तिरछी निगाह से देखा और कहा "कोई नहीं"। और निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर

रास्ते में याद आया के आज पार्क तोह बंद रहेगा। ओह गोड। अब क्या। खैर उससे मिलने तोह जाना ही था। तोह मैं चलता रहा। पार्क के सामने ही उसका वेट किया। हमेशा की तरह वो लेट आई। मगर इस बार तोह करीब आधा घंटा लेट। गुस्सा तोह आ रहा था मुझे के लेट क्यूँ आई वो, बुत उसकी शक्ल देख कर सारा गुस्सा रफूचक्कर हो गया।

"आज पार्क बंद है" मैंने कहा।

"तोह ?"

"तो क्या, कुछ नहीं वापिस घर।" और करता भी क्या मैं।

"ह्म्म्म...नहीं। एक जगह और है जहाँ हम जा सकते हैं।" उसके अनुभवी दिमाग ने उसे आदेश दिया।

"पर कहाँ ?"

"बाइक स्टार्ट करो, बताती हूँ।"

मैंने उसके आदेश का पालन किया। और हम दोनों चले गए इस नए स्थान की ओर।

"ये क्या मुझे मेरे ही घर ले जा रही हो। " मैंने रास्ता देखते हुए पूछा। मैंने सोचा ये कुड़ी पागल हो गयी है।

"ओफ्फो, तुम चलो तोह। यहाँ से सीधे चलना। अपने घर की तरफ मोड़ना मत।"

"ओके" मैंने उसकी आज्ञा का पालन किया।

"हाँ हाँ बस। आगे से लेफ्ट।"

"ओके"

"वाओ..क्या शानदार रोड है यार। मैं तोह पहले कभी नहीं आया यहाँ पर।"

"ह्म्म्म..जानती हूँ"

"प्यास लगी है। एक पानी की बोतल ले लें?"

"हाँ बिलकुल, तुम यहीं रुको मैं लेके आया।"

मैं पानी लेके आया। तब मैंने ध्यान दिया हमसे थोड़ी ही दूर पे कुछ लड़के हमें घूर रहे हैं। मैंने तनु से कहा।

"यार, ये जगह काफी सुनसान नहीं लग रही तुम्हे।"

"हाँ तो ? वोह अंकल आंटी भी तोह बैठे हैं"

"हम्म...ठीक है। चलो यहीं कहीं बैठते हैं।"

और हम बैठ गए। और फिर वहीँ हमारी इधर उधर की बातें शुरू हो गयी। तभी मैंने देखा के वोही लड़के फिर मोटरसाइकल पर आये और फिर हमें घूर रहे थे। मैंने उनकी तरफ थोड़े गुस्से से देखा।

तनु बोली "अरे छोड़ो क्षितिज, इनका तोह काम ही यही है। जहाँ भी दो लड़का लड़की दिखे तोह घुरना शुरू कर देते हैं।"

मैंने फिर अपना ध्यान तनु पर लगाया। वोह अपने बाल खोल कर कंघी करने लगी और शायद पहली बार मैंने उसकी तरफ एक आकर्षण महसूस किया। कहने को तोह वोह मेरी दोस्त थी, मेरी सबसे अछि दोस्त, मगर आज कुछ अलग सी फीलिंग आ रही थी उसके लिए। खैर उसका कंघी करना और मेरा उसे निहारना जारी रहा। के तभी उन लडको का फिर से आगमन हुआ मगर वोह तीन की जगह चार थे। और वे तेज़ी से हमारी तरफ बढे। उन्हें इस तरह आता देख वोह अंकल आंटी तोह भाग खड़े हुए। मगर हम दोनों को सँभालने का मौका मिलता उससे पहले ही उन्होंने उतर के मुझे पर लात घूंसों की बारिश शुरू कर दी।

"अरे..रे ये क्या कर रहे हो" शायद ऐसा ही कुछ मैंने बोला हो। उस वक़्त सोचने का मौका नहीं मिल रहा था। उन्होंने मुझे मारना जारी रखा। अपने लेफ्ट साइड पर मैंने देखा तनु ने रोना शुरू कर दिया था साथ ही वोह चिल्ला रही थी, शायद उनसे कह रही हो के मुझे ना मारें, मगर उनपर कोई असर नहीं हुआ था।

मैंने मेरे ठीक सामने वाले बन्दे को धक्का दिया और थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया। मैं जो सवाल करना चाहता था उसका उत्तर बिना पूछे ही मुझे मिल गया।

"यहाँ अक्सर लड़कियों के साथ रेप होते रहते हैं। और पुलिस गाँव वालों को परेशान करती है। तुम लोगों की वजह से हमारा जीना मुश्किल हो गया है। क्या तुम्हे कोई और जगह नहीं मिलती नैनमटक्का करने के लिए।"

"देखो तुम फालतू की बात मत करो। हम दोनों दोस्त हैं और सिर्फ यहाँ बैठ के बातें कर रहे थे। ये तुम भी जानते हो क्यूंकि तुम बहुत देर से हम दोनों पर नज़रें जमाये बैठे हो।

"मैं कुछ नहीं जानता। मैं सिर्फ इतना जानता हूँ के तुम दोनों को पुलिस स्टेशन लेके जाऊंगा"

पुलिस स्टेशन के नाम से तनु घबरा गयी। मुझे ये पूरा वाकया किसी फिल्मी सीन की तरह लग रहा था। जहाँ मैं था, मेरे साथ एक खुबसूरत लड़की, और सामने कुछ गुंडे। फिल्मों में ऐसे सीन बड़ी आसानी से निपट जाते हैं मगर उस समय मेरी जो हालत थी, वोह किसी भी फिल्मी हीरो से मेल नहीं खाती थी। फिल्मी हीरो तोह किसी से नहीं घबराता, मगर यहाँ मेरी फटी पड़ी थी। किसी फिल्मी सीन और इस घटना में अगर कोई समानता थी तोह वोह थी एक खुबसूरत लड़की और कुछ गुंडे। मेरा फिल्में देखना किसी काम का नहीं अगर मैंने उनमें से कुछ सीखा नहीं। ये सब मेरे दिमाग में चल रहा था। मैंने उस मुख्य गुंडे के आजू बाजु खड़े छोटे गुंडों को देखा। देखने में सब के सब सींक कबाब थे। उनको देख कर मेरी हिम्मत थोड़ी बढ़ी ये सोचकर के इनमें से कुछ से तोह मैं निपट ही सकता हूँ। मैंने कहा।

"पुलिस स्टेशन। चलो चलो बिलकुल चलो पुलिस स्टेशन। जब हमनें कुछ किया ही नहीं तोह हमें किस बात की चिंता।"

मगर मेरी टीम में एक ऐसा प्लयेर भी था जिसे स्टेशन जाने की बात पसंद नहीं आई।

"पागल हो गए हो। स्टेशन गए तोह, सीधे घर पे काल जायेगा। और मेरी छुट्टी हो जाएगी। चुप करो।" तनु बोली.

मैं तनु को कैसे समझाता के स्टेशन का तोह सिर्फ बहाना है, इन्हें तोह हमें लूट के जाना है। मैंने फिर कहा।

"चलो न स्टेशन। अब क्यूँ रुके हुए हो।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

उन्हें मेरा मुस्कुराना पसंद नहीं आया।

"अबे एक तोह यहाँ छुप छुप कर लड़की के साथ रंगरलियाँ मन रहा था। हमारा नाम ख़राब कर रहा था और अब तू हंस रहा है" कहते हुए वो मेरे पास आया और मुझे फिर मारने की कोशिश की। मगर तनु बीच में आ गयी उसका हाथ पकड़ने। तनु के अन्दर झाँसी की रानी की आत्मा आते देख मुझे भी जोश आया और मैंने उस गुंडे का हाथ पकड़ के ऐसा घुमाया के वोह दर्द से कराह उठा और मैंने उसे ज़मीन पे धक्का देकर एक लात जमाई। और पलट कर तनु की तरफ देखा ये सोच कर के वोह मेरी बहादुरी देख कर फूली नहीं समां रही होगी। मगर उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव न था। दूसरी तरफ छोटे गुंडों ने जब अपने लीडर को ज़मीन पर धराशायी देखा तोह उन्होंने भाग कर मुझे पकड़ लिया। उनका लीडर उठा और सीधे अपना असली मकसद बयान कर दिया।

"देख बे, तुझे अगर पुलिस स्टेशन नहीं जाना है तोह सीधे 1००० रुपये मेरे हाथ में रख दे।"

"हमारे पास हज़ार रुपये हैं ही नहीं।"

"तो कितने हैं ?"

"होंगे १००-२०० रुपये।"

"अबे फक्कड़ शर्म नहीं आती, १००-२०० रुपये जेब में रखके लड़की घुमाने निकला है। ये गाडी यहीं छोड़ के जा।"

"अबे तुम पागल हो गए हो। जानते हो कितनी दूर से आये हैं यहाँ। वापिस कैसे जायेंगे।"

"मुझे क्या करना है बे चूतिये। ये सब सोच के।"

"प्लीज़ भैया, हमें जाने दीजिये न।" तनु ने अपनी मधुर आवाज़ में कहा।

"भैय्या ?। हा हा हा। तू चुप कर।"

तभी वहां से कुछ ट्रेक्टर गुज़रते हुए दिखाई दिए। इन गुंडों ने यहाँ से चम्पत होने में ही भलाई समझी। बिना रुपये लिए ही वे अपनी मोटरसाइकल पर विराजमान हो गए।

"बेटा, तुम दोनों की किस्मत बहुत अछि है।"

मुझे लेकिन समझ नहीं आया के इस पिटाई को मैं अपनी अछि किस्मत समझूँ या बुरी। खैर मैंने भी अपनी बाइक स्टार्ट की, तनु को बिठाया और अगले ३ किलोमीटर तक मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। थोड़ी दूर और जाके मैंने गाडी रोकी और तनु को मुड़कर देखा। और हम दोनों जोर से हंस दिए। हमें यकीन नहीं हुआ के हम दोनों बिलकुल सुरक्षित अपने सारे पैसों के साथ वहां से निकल आये थे। वाकई हम खुशकिस्मत थे। जो होता है अछे के लिए होता है ऐसा मैंने हमेशा विश्वास किया है। मगर आज की घटना क्या अच्छा लेके आने वाली थी इसका इंतज़ार मुझे ज्यादा देर नहीं करना पड़ा। तनु ने कास के मुझे पकड़ा हुआ था। पहली बार उसने मुझे हग किया था। मैंने उससे पूछा "हम अब भी सिर्फ फ्रेंड्स हैं ना?" उसने कुछ नहीं कहा बस वो हंसी और एक ज़ोरदार हग और दिया। मैं मन ही मन उस गुंडे सज्जन को दुआएं दे रहा था। मेरे लिए तोह वोह भगवान् के भेजे किसी अवतार से कम न था। जो कुछ मैं पिछले १-१/२ साल की मुलाकातों में नहीं करवा पाया था वोह आज इस एक घटना से हो गया था। जय हो गुंडे बाबा की।

Saturday, September 25, 2010

Enough I Say !!!

शहर के बीचों बीच बसा एक क़स्बा, नया नगर। सकरी गलियां, गन्दी नालियाँ, टूटे मकान। यही पहचान हैं नया नगर की। कहने को तोह घरों के बीच ज्यादा दूरियां नहीं थी, मगर दिलों के बीच जो दूरियां थीं, उसका कोई हिसाब न था। आस पड़ोस में क्या हो रहा है, किसी को खबर ना थी और ना ही चिंता। कोई जिए या मरे किसी को परवाह ना थी।

यहीं बीच में थी वोह खोली। खोली नंबर ११२। वही पुरानी टूटी फूटी कोली, जिसके अन्दर क्या हो रहा है, किसी को पता न था।

अन्दर एक १२ साल की लड़की अपनी माँ की गोद में दुबक के बैठी थी। वोह हांफ रही थी, दरी सहमी। नज़रें नीचे किये हुए...शायद किसी से डरके बैठी थी। वहीँ उसकी माँ उसे अपनी बाहों में कस के पकड़ के बैठी थी। वोह किसी से रहम की गुहार लगा रही थी। उनके सामने एक बड़ी सी परछांई थी। शायद इसी से वोह दोनों डरे हुए थे।

"अब मैं तुम दोनों को और नहीं झेल सकता। यहीं आज तुम दोनों की कब्र खोदुन्गा।"

माँ रोते हुए बोली। "हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। और तुम्हारा झगडा तोह मुझसे है ना। इस सब में रिमझिम की क्या गलती है।"

"तू चुप कर हरामजादी। बहुत सुन ली तेरी बकवास। अब और नहीं झेल सकता। अब मुझे कोई नहीं रोक सकता। समझी। तू भी नहीं। " कहते हुए वोह उसकी तरफ रिवोल्वर तान देता है।

"देखो, तुमने बहुत ज्यादा पी राखी है। ऐसा कुछ मत करो जिसपे बाद में तुम्हे पछतावा हो।"

"हा हा हा...पछतावा...और वोह भी तुझे मारने का..हा हा हा। कभी नहीं।"

सकूबाई उससे रिवोल्वर छीन ने के लिए कड़ी होती है। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दन्न से गोली चलती है। एक नहीं तीन। और सकूबाई वहीँ ढेर हो चुकी थी।

कुछ घंटे पहले

"माँ क्या हमें इस आदमी के साथ रहना ज़रूरी है। हम कहीं दूर जा नहीं सकते क्या। मैं नहीं चाहती के वोह हमें और मारे"

"रिमझिम, ये मत भूल के हम सड़क पर होते अगर मालिक का सहारा ना होता। कचरे के ढेर में कहीं पड़े होते हम।"

"कहीं भी होते मगर इस नरक से तोह अछे ही होते"

तभी कोई जोर से धक्का देके दरवाज़ा खोलता है। ये मालिक है। हमेशा की तरह शराब के नशे में टुन्न होके आया है। आते ही अपने हाथ सकुबाई के बालों पर फिराता है, उसके हाथ सकुबाई की गर्दन से होते हुए उसके सीने की तरफ बढ़ते हैं। सकुबाई उसे रोक देती है।

"जाओ जाके सो जाओ। बहुत पी राखी है तुमने।"

मालिक को गुस्सा आ जाता है। "चुप साली, बहुत हो गया। अब तू मुझे नहीं बताएगी के मुझे क्या करना और क्या नहीं समझी क्या।"

मालिक रिमझिम की तरफ देखता है। "चल ठीक है, तू नहीं तोह तेरी बेटी ही सही।"

"छि छि कैसा बाप है तू।"

"चुप कर। ये मेरी बेटी नहीं है। तू तोह कुछ करने देती नहीं। लगता है तेरी बेटी की पिटाई करनी पड़ेगी तुझसे कुछ करवाने के लिए। हा हा हा"

रिमझिम के पास जाकर मालिक उसे ३-४ थप्पड़ लगा देता है। रिमझिम चुप चाप मुंह नीचे किये हुए, आँखें बंद किये हुए ये सब सह लेती है। उसकी आँखों से पानी की सिर्फ कुछ बूँदें निकलती हैं। सकुबाई हताश थी। मालिक के सिवा उसका कोई आसरा ना था। वोह सब कुछ देख के भी कुछ नहीं करती।

मालिक पर नशा कुछ ज्यादा ही हावी था। वोह वहीँ गिर जाता है। सकुबाई उसे घसीट के बिस्तर तक लाती है और उसे बिस्तर पर लिटा देती है। मगर उसके आंसूं थम नहीं रहे थे। उसके अन्दर का ज़मीर उसे खाए जा रहा था के कैसे उसने अपनी फूल जैसी बची को अपने सामने एक दरिन्दे से मार खाने दिया। वोह क्या इतनी कमज़ोर हो गयी है के अपनी बची को बचा नहीं सकती। वोह क्यूँ आज तक ये सहती जा रही है। क्यूँ हिम्मत नहीं दिखाई आज तक। क्यूँ इस पिंजरे से भाग नहीं गयी अपनी रिमझिम को लेके। आज तोह हद ही हो चुकी थी। ऐसा कब तक चलेगा। नहीं। अब और नहीं। अब और वोह खुद को और उसकी रिमझिम को ये सब सहने नहीं देगी।

इतना सब सोचते हुए वोह बहार आई और गली के कोने में लगे STD बूथ तक गयी। और फ़ोन लगाने लगी। इससे पहले के सामने से कोई फ़ोन उठा पता। किसी ने सकुबाई के हाथ से रिसीवर छीन के वापस रख दिया था। ये मालिक था। वोह शायद सोया नहीं था।

"क्या कर रही थी... चल मेरे साथ। तुझे बताता हूँ मैं आज।"

मालिक सकुबाई को खींचता हुआ घर के अन्दर लाया।

"बोल किसको फ़ोन लगा रही थी। अपने भाई को। मुझे गिरफ्तार करवाएगी तू। हाँ। बोल। अब चुप क्यूँ हो गयी तू।"

सकूबाई को एक ही तरीका सूझा इस परिस्थिति से बचने का। उसने अपने हाथ मालिक गर्दन पे डाले और बोली।

"मैं क्या कभी ऐसा कर सकती हूँ...मेरी जान।"

"तू छू मत मुझे साली। तुझे अछे से जानता हूँ मैं"

रिमझिम ये सब अपनी आँखों से देख रही थी। वोह पलंग के पीछे छुप के बैठी थी। वोह बुरी तरह से दरी हुई थी। मालिक ने सकुबाई को धक्का दिया और पलंग के बाजू में राखी अलमारी तक गया और उसमें से रिवोल्वर निकाल ली। रिवोल्वर देखते ही रिमझिम चीख पड़ी और दौड़ के अपनी माँ के पास जाके उसकी गोद में दुबक गयी।

वर्त्तमान

अपनी माँ को ज़मीन पे निढाल पड़ा देख के रिमझिम के होश उड़ गए थे। उसे समझ नहीं आ रहा था के वोह क्या करे। उसने अपनी माँ को हिलाने की कोशिश की। मगर सब व्यर्थ था। उसकी आँखों में आसू छलक उठे थे। उसने गुस्से से मालिक को देखा।

"आँखें क्या दिखाती है। अभी तेरा हाल भी यही होने वाला है" कहते हुए उसने एक जोर दार तमाचा रिमझिम को लगाया।

"अरे रे इतनी हिम्मत भी नहीं तुझमें के पलट के एक थप्पड़ मुझे लगा सके।"

"और तू इतना बड़ा नामर्द है जो दो औरतों को मार रहा है" रिमझिम ने पहली बार ऐसी ऊंची आवाज़ में मालिक से बात की थी। "हमने तेरे साथ कभी कुछ बुरा नहीं किया, क्यूँ तुने मेरी माँ को मारा"

मालिक के पास कोई जवाब न था। इस वजह से उसका गुस्सा और बढ़ गया। "क्या कहा तुने" मालिक ने रिवोल्वर ज़मीन पे फ़ेंक दी। और रिमझिम के पास आकर उसका गला पकड़ लिया। "मुझे नामर्द बोला तुने"

रिमझिम का गला काफी कस के पकड़ रखा था मालिक ने। उसके गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी। फिर भी उसने कोशिश की। "ह...ह...ह... हां। नामर्द है तू। दुनिया का सबसे बड़ा नामर्द।"

मालिक का गुस्सा और बढ़ गया। उसने रिमझिम के गले पे और जोर लगाना चाहा। मगर तभी उसने सर पर कुछ महसूस किया। वोह पीछे पलता। अपनी ही रिवोल्वर सकूबाई के हाथ में देख के वोह हैरान था। सकू बाई में अभी मरी नहीं थी। उसमें इतनी जान बाकी थी के अपनी बेटी को बचा सके।

"और नहीं मालिक....और नहीं" इतना कहते ही उसने ट्रिगर दबा दिया और एक गोली मालिक के सर को चीरती हुई निकल गयी। मालिक अब मर चूका था। मालिक के ज़मीन पर गिरते ही सकुबाई भी गिर गयी। रिमझिम भागती हुई उसके पास पहुंची। वोह रोये जा रही थी। उसकी माँ ही उसके लिए सब कुछ थी। बिना माँ के वोह कैसे जियेगी। क्या वोह कुछ कर सकती थी अपनी माँ को बचाने के लिए। उसने सकुबाई का सर उठा के अपनी गोद में रखा। उसकी माँ उसे मुस्कुरा के देख रही थी। पर तभी उसकी आँखें बंद हो गयी।

"माँ " रिमझिम चिल्लाई। और बेतहाशा रोने लगी.

Saturday, September 18, 2010

दृश्य 1

सूरज पहाड़ियों के पीछे अस्त हो रहा है। सूरज की लालिमा आसमान में चरों और फैली हुई है। बड़ा ही खुशनुमा माहौल है। चरों तरफ शांति ही शांति है के तभी पूरा जंगल एक गोली की आवाज़ से दहल उठता है। पंछी पेड़ों से उड़ जाते हैं। घोड़ों के टापोंकी आवाज़ आती है। जंगल की शांति अब भंग हो चुकी है। दो घुड़सवार तेज़ी से दृश्य में आ जाते हैं। वोह किसी का पीछा कर रहे हैं।

जय: "उस तरफ.....और तेज़"
शिवेन्दु: "हाँ"

दोनों लगाम पे और जोर लगाते हैं। उनका शिकार भागते भागते पहाड़ियों तक पहुँच जाता है। दोनों चलते घोड़ों पर से ही गोलियों के कुछ वार करते हैं। आखिर एक गोली उनके शिकार को लग ही जाती है और उनका शिकार कुछ फलांग और मार पता है। और ज़मीन पर ढेर हो जाता है।

दोनों अपने अपने घोड़ो से उतर जाते हैं। लगता है काफी देर से अपने शिकार का पीछा कर रहे थे। दोनों की हालत बड़ी खस्ता है। चेहरे पर धुल और पसीना साफ़ दिख रहा है।

"बड़ा दम था साले में। पीछा करते करते थका डाला", कहते हुए जय अपनी हट उतारता है और घोड़े की पीठ पर तंगी पानी की बोतल निकालता है और अपना मूंह धोता है।

"सही कहा" शिवेन्दु इधर उधर देखता है। "वैसे हम हैं कहाँ"। कहते हुए जय से पानी की बोतल लेता है और पानी पीता है।

जय अपनी दूरबीन निकलता है और उसे चरों तरफ घुमाकर ये जान ने की कोशिश करता है के वोह दोनों इस विशाल मैदान के कौनसे हिस्से में जा पहुंचे थे। काफी दूर पे उसे एक बाड़ा दिखाई देता है

"वोह उस तरफ हमारा क़स्बा है" जय इशारा करता है।

"ठीक है, जल्दी से इस तेंदुए को घोड़े पर बाँध देते हैं। अँधेरा होने वाला है, ज्यादा देर की तोह रात यहीं बितानी पड़ेगी।"

जय अभी भी रास्ता खोजने की कोशिश में चारों तरफ देख रहा था। उसने अपनी दूरबीन का रुख पहाड़ की तरफ किया और अचानक किसी चीज़ को देख कर उसकी आँखें ठिठक गयी।

"वोह क्या है"
"क्या"
"वोह उस तरफ"

शिवेन्दु जय के हाथों से दूरबीन छीन कर देखता है।
"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। वहां तोह बस झाड ही झाड हैं।"

"नहीं वहां कुछ और भी है। हमें जाके देखना होगा"

"अरे छोड़ ना यार। होगा कोई जानवर, अँधेरा हो गया तोह घर नहीं जा पाएंगे।" शिवेन्दु ने समझाने की कोशिश की"

"नहीं। मैं जाकर देखूंगा। तुम्हे जाना है तोह जाओ।" जय मान ने वाला नहीं था।

जय उस "चीज़" की तरफ बढ़ता है। शिवेन्दु उसे छोड़ के नहीं जा सकता था। वोह भी उसके पीछे पीछे जाता है।

वोह दोनों कुछ आगे बढ़ते ही पहचान लेते हैं के वोह चीज़ आखिर है क्या।

"अरे !!! ये तोह..." दोनों एक साथ बोल पड़ते हैं।

दोनों भाग के उसके पास जाते हैं। ढलान होने के कारण शिवेन्दु का पाऊँ फिसल जाता है। जय उसे संभालता है। वोह "चीज़" दरअसल एक आदमी है जो बेहोशी की हालत में वहां पड़ा है। चोट के निशाँ उसके शरीर पर हर तरफ हैं.

"इसकी ये हालत कैसे हुई"।

करीब ४० साल का वोह आदमी, उसके कपडे चीथड़ों में बदल चुके हैं। साँसे अब भी चल रही हैं, मगर होश नहीं।

शिवेन्दु आगे बढ़ कर उसकी नाडी देखता है, उसकी आँखें टटोलता है, फिर निराश होके वहीँ बैठ जाता है। जय उसकी तरफ आशाभरी नज़रों से देखता है।

"क्या" जय उत्तेजित स्वर में पूछता है।

"अब कुछ नहीं हो सकता। ये नहीं बचेगा। शायद ये इन रास्तों से अनजान था। शाम के धुन्दल्के में पैर फिसल गया होगा और ये नीचे आ गिरा होगा...बेचारा।"

जय के चेहरे पर दुःख साफ़ दीखता था। "अब"। उसने पूछा।

"अब तोह हम भी बेचारे ही हैं। इस अँधेरे में रास्ता मिलना तोह मुश्किल ही है। आज रात यहीं डेरा डालते हैं। सुबह होते ही वापस जायेंगे।"

जय ने हाँ में सर हिलाया। "क्या इसके लिए कुछ नहीं कर सकते" जय ने एक बार फिर पूछा।

शिवेन्दु ने नाउम्मीद होते हुए कहा " ये ज्यादा देर तक जिंदा नहीं रहेगा...नो चांस"

"इसको साथ लेकर कहीं चलते हैं" जय ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी।

"पागल हो गए हो!!! इसकी कमर टूट चुकी है। घोड़े पे लेकर जाना तोह दूर, इसे हिलाया भी तोह ये बेचारा दर्द से मर जायेगा" अब हम कुछ नहीं कर सकते। जब तक मदद आयेगी, ये बच नहीं पायेगा।"

ये कहते हुए शिवेन्दु घोड़ों की तरफ गया और unhe एक एक करके पास ही के पेड़ों से बाँध दिया और खुद ज़मीन पर जाके लेट गया।

जय उस आदमी के पास से उठा और पास ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर जाकर बैठ गया। अपने साथ लाया एक टोर्च जला लिया क्यूंकि अँधेरा काफी हो गया था। उसने एक सिगरेट जला ली। उसने टोर्च से आस पास देखा। दूर दूर तक सिर्फ सन्नाटा था। वह अपने आप से ही बातें करने लगा।

'ज़िन्दगी भी क्या खेल खेलती है। एक गलत कदम और मौत। हम्म...३५-४० साल का एक आदमी, हत्ता कट्टा, शायद कभी बीमार भी न हुआ हो, इसे क्या पता था के आज आज घर से निकलूंगा तोह कभी वापस ना जा पाउँगा'

जय ये सोचते सोचते टोर्च की मदद से उस आदमी को पैरों से सर तक ताड़ रहा था। जैसे ही टोर्च की रौशनी उस आदमी की आँखों तक पहुंची..वोह आँखें खुल गयी।

जय ठिठक गया। वोह आँखें सीधा जय को देख रही थी। जय पहले तोह घबरा गया फिर हिम्मत करके उसके पास गया। जय कुछ बोलता उससे पहले ही वोह आदमी बोल पड़ा....

"य य यास्मीन क क क का पता लगाओ"

इतना कहते ही वोह आवाज़ बंद हो गयी, और वोह आँखें बेजान। वोह मर गया था.

जय अपनी जेब से एक रुमाल निकलता है और उसके चेहरे को धक् देता है। जय के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता है। वोह उस आदमी की जेब टटोलता है शायद इस उम्मीद में के पता चल सके के ये आदमी था कौन। उसके जैकट की जेब से जय को एक तस्वीर मिलती है। वोह तस्वीर एक लड़की की है। गोरा चेहरा, काली आँखें, तीखे नैन नक्श, एक ऐसा चेहरा जोई कोई एक बार देख ले तोह कभी भूल न सके। वोह उस चेहरे में कहीं खो जाता है।

तभी कोई आके उसके कंधे पे हाथ रखता है। जय तुरंत पलट के देखता है।

"खाना खालें ??" शिवेन्दु पूछता है.

Thursday, September 16, 2010

वोह आँखें जिनमे थे हज़ार सपने.

वोह आँखें जिनमें थे हज़ार सपने। वोह नन्ही आँखें जो हरपल आसमान को घूरती रहती थी। कुछ ढूंडा करती थी। वोह आँखें थी शेखर की। हम सब की ज़िन्दगी में एक ऐसा पल आता है जो हमारी पूरी ज़िन्दगी को एक नयी मंजिल दे देता है। आज ऐसा ही एक पल शेखर की ज़िन्दगी में भी आया है।





आज गाँव में त्यौहार सा माहौल है। मेला सा लगा है। कल शाम को खबर आई थी के सरपंच जी आज गाँव को एक नया तोहफा देने जा रहे हैं। पर किसी को ये मालूम न था कि आखिर वह तोहफा है क्या। भीड़ बढती जा रही है। पंचायत के आगे कई पंडाल लगे हैं जिसमें लोग खचाखच जमा हैं। सबसे कि आगे कि लाइन में बच्चे बैठे हैं। सब सबसे अच्छी जगह घेरना चाहते हैं। इस वजह से कुछ लोगों में कहासुनी हो गयी और दो लोग तोह हाथापाई पर उतर आये। उनका झगडा इतना बढ़ गया के और लोगों को बीच बचाव करने आना पड़ा और पूरा गाँव दो खेमों में बात गया।





गाँव कस्बों के ऐसे झगड़ों में कुछ लोग डंडे लेकर हमेशा तैयार रहते हैं। ठीक ऐसा ही यहाँ भी हुआ। लोग भूल गए के वोह यहाँ आखिर आये किस लिए थे। उनके डंडों से किसी कर सर फूटता, इससे पहले ही सरपंच जी माइक पर आ गए और लोगों को शांत करने की कोशिश करने लगे। अपने लम्बे भाषण देने के लिए मशहूर सरपंच जी का पूरा वक़्त लोगों के झगडे सुलझाने में निकल गया। करीब आधे घंटे बाद मामला शांत हुआ और आखिरकार सरपंच जी बोलने के लिए माइक पर आ गए मगर शायद अब उनमें भी जान नहीं बची थी के खड़े होके कुछ बोले। बड़ी मुश्किल से ये कुछ शब्द उनके मुखमंडल से निकल सके।





"बिहारी जी, वोह जो लाये हैं, उसे चालु कर दीजिये।"





"जी बिलकुल, अभी लीजिये।" बिहारी जी बोले और एक बड़ा सा टेबल सरका के सामने लाये जिसपर कुछ कपडे से ढका रखा था।





बिहारी जी का चेहरा बता रहा था के वोह ये जानते हैं कि कपडे के नीचे क्या है और ये भी कि गाँव वाले कितना खुश होंगे ये देखके। बिहारी जी जोर से बोले।





"बच्चों, अब आप मेरे साथ बोलियेगा। एक..."





बच्चों ने भी बिहारी जी के सुर से सुर मिलाया


"एक"


"दो"


"तीन"





तीन कहते ही बिहारी जी ने एक झटके से वोह कपडा हटा दिया और गाँव वालों कि और बड़ी उत्सुकता से देखा। मगर गाँववालों ने कुछ ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी। शायद उनकी आँखों ने जो देखा वोह उन्हें पसंद नहीं आया या उन्हें समझ ही नहीं आया।





बिहारी जी को बोलना ही पड़ा।





"क्या आपमें से कोई बता सकता है कि ये क्या है।"





सबने ना में सर हिलाया।





"कोई बात नहीं, आप लोग कैसे बताओगे। हमें खुद कल इसका नाम पता चला है।" और बिहारी जी ने ये कहते हुए एक ज़ोरदार ठहाका लगाया। मगर गांववालों को ज़रा भी मज़ा नहीं बच्चों। क्या क्या कहते है इसे लगा था कि कपडे, अनाज, जैसा कुछ मिलेगा मगर सामनें तोह एक बदरंग सा बक्सा था।

"इसे कहते हैं टीवी"