Saturday, September 18, 2010

दृश्य 1

सूरज पहाड़ियों के पीछे अस्त हो रहा है। सूरज की लालिमा आसमान में चरों और फैली हुई है। बड़ा ही खुशनुमा माहौल है। चरों तरफ शांति ही शांति है के तभी पूरा जंगल एक गोली की आवाज़ से दहल उठता है। पंछी पेड़ों से उड़ जाते हैं। घोड़ों के टापोंकी आवाज़ आती है। जंगल की शांति अब भंग हो चुकी है। दो घुड़सवार तेज़ी से दृश्य में आ जाते हैं। वोह किसी का पीछा कर रहे हैं।

जय: "उस तरफ.....और तेज़"
शिवेन्दु: "हाँ"

दोनों लगाम पे और जोर लगाते हैं। उनका शिकार भागते भागते पहाड़ियों तक पहुँच जाता है। दोनों चलते घोड़ों पर से ही गोलियों के कुछ वार करते हैं। आखिर एक गोली उनके शिकार को लग ही जाती है और उनका शिकार कुछ फलांग और मार पता है। और ज़मीन पर ढेर हो जाता है।

दोनों अपने अपने घोड़ो से उतर जाते हैं। लगता है काफी देर से अपने शिकार का पीछा कर रहे थे। दोनों की हालत बड़ी खस्ता है। चेहरे पर धुल और पसीना साफ़ दिख रहा है।

"बड़ा दम था साले में। पीछा करते करते थका डाला", कहते हुए जय अपनी हट उतारता है और घोड़े की पीठ पर तंगी पानी की बोतल निकालता है और अपना मूंह धोता है।

"सही कहा" शिवेन्दु इधर उधर देखता है। "वैसे हम हैं कहाँ"। कहते हुए जय से पानी की बोतल लेता है और पानी पीता है।

जय अपनी दूरबीन निकलता है और उसे चरों तरफ घुमाकर ये जान ने की कोशिश करता है के वोह दोनों इस विशाल मैदान के कौनसे हिस्से में जा पहुंचे थे। काफी दूर पे उसे एक बाड़ा दिखाई देता है

"वोह उस तरफ हमारा क़स्बा है" जय इशारा करता है।

"ठीक है, जल्दी से इस तेंदुए को घोड़े पर बाँध देते हैं। अँधेरा होने वाला है, ज्यादा देर की तोह रात यहीं बितानी पड़ेगी।"

जय अभी भी रास्ता खोजने की कोशिश में चारों तरफ देख रहा था। उसने अपनी दूरबीन का रुख पहाड़ की तरफ किया और अचानक किसी चीज़ को देख कर उसकी आँखें ठिठक गयी।

"वोह क्या है"
"क्या"
"वोह उस तरफ"

शिवेन्दु जय के हाथों से दूरबीन छीन कर देखता है।
"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। वहां तोह बस झाड ही झाड हैं।"

"नहीं वहां कुछ और भी है। हमें जाके देखना होगा"

"अरे छोड़ ना यार। होगा कोई जानवर, अँधेरा हो गया तोह घर नहीं जा पाएंगे।" शिवेन्दु ने समझाने की कोशिश की"

"नहीं। मैं जाकर देखूंगा। तुम्हे जाना है तोह जाओ।" जय मान ने वाला नहीं था।

जय उस "चीज़" की तरफ बढ़ता है। शिवेन्दु उसे छोड़ के नहीं जा सकता था। वोह भी उसके पीछे पीछे जाता है।

वोह दोनों कुछ आगे बढ़ते ही पहचान लेते हैं के वोह चीज़ आखिर है क्या।

"अरे !!! ये तोह..." दोनों एक साथ बोल पड़ते हैं।

दोनों भाग के उसके पास जाते हैं। ढलान होने के कारण शिवेन्दु का पाऊँ फिसल जाता है। जय उसे संभालता है। वोह "चीज़" दरअसल एक आदमी है जो बेहोशी की हालत में वहां पड़ा है। चोट के निशाँ उसके शरीर पर हर तरफ हैं.

"इसकी ये हालत कैसे हुई"।

करीब ४० साल का वोह आदमी, उसके कपडे चीथड़ों में बदल चुके हैं। साँसे अब भी चल रही हैं, मगर होश नहीं।

शिवेन्दु आगे बढ़ कर उसकी नाडी देखता है, उसकी आँखें टटोलता है, फिर निराश होके वहीँ बैठ जाता है। जय उसकी तरफ आशाभरी नज़रों से देखता है।

"क्या" जय उत्तेजित स्वर में पूछता है।

"अब कुछ नहीं हो सकता। ये नहीं बचेगा। शायद ये इन रास्तों से अनजान था। शाम के धुन्दल्के में पैर फिसल गया होगा और ये नीचे आ गिरा होगा...बेचारा।"

जय के चेहरे पर दुःख साफ़ दीखता था। "अब"। उसने पूछा।

"अब तोह हम भी बेचारे ही हैं। इस अँधेरे में रास्ता मिलना तोह मुश्किल ही है। आज रात यहीं डेरा डालते हैं। सुबह होते ही वापस जायेंगे।"

जय ने हाँ में सर हिलाया। "क्या इसके लिए कुछ नहीं कर सकते" जय ने एक बार फिर पूछा।

शिवेन्दु ने नाउम्मीद होते हुए कहा " ये ज्यादा देर तक जिंदा नहीं रहेगा...नो चांस"

"इसको साथ लेकर कहीं चलते हैं" जय ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी।

"पागल हो गए हो!!! इसकी कमर टूट चुकी है। घोड़े पे लेकर जाना तोह दूर, इसे हिलाया भी तोह ये बेचारा दर्द से मर जायेगा" अब हम कुछ नहीं कर सकते। जब तक मदद आयेगी, ये बच नहीं पायेगा।"

ये कहते हुए शिवेन्दु घोड़ों की तरफ गया और unhe एक एक करके पास ही के पेड़ों से बाँध दिया और खुद ज़मीन पर जाके लेट गया।

जय उस आदमी के पास से उठा और पास ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर जाकर बैठ गया। अपने साथ लाया एक टोर्च जला लिया क्यूंकि अँधेरा काफी हो गया था। उसने एक सिगरेट जला ली। उसने टोर्च से आस पास देखा। दूर दूर तक सिर्फ सन्नाटा था। वह अपने आप से ही बातें करने लगा।

'ज़िन्दगी भी क्या खेल खेलती है। एक गलत कदम और मौत। हम्म...३५-४० साल का एक आदमी, हत्ता कट्टा, शायद कभी बीमार भी न हुआ हो, इसे क्या पता था के आज आज घर से निकलूंगा तोह कभी वापस ना जा पाउँगा'

जय ये सोचते सोचते टोर्च की मदद से उस आदमी को पैरों से सर तक ताड़ रहा था। जैसे ही टोर्च की रौशनी उस आदमी की आँखों तक पहुंची..वोह आँखें खुल गयी।

जय ठिठक गया। वोह आँखें सीधा जय को देख रही थी। जय पहले तोह घबरा गया फिर हिम्मत करके उसके पास गया। जय कुछ बोलता उससे पहले ही वोह आदमी बोल पड़ा....

"य य यास्मीन क क क का पता लगाओ"

इतना कहते ही वोह आवाज़ बंद हो गयी, और वोह आँखें बेजान। वोह मर गया था.

जय अपनी जेब से एक रुमाल निकलता है और उसके चेहरे को धक् देता है। जय के चेहरे पर कोई भाव नहीं आता है। वोह उस आदमी की जेब टटोलता है शायद इस उम्मीद में के पता चल सके के ये आदमी था कौन। उसके जैकट की जेब से जय को एक तस्वीर मिलती है। वोह तस्वीर एक लड़की की है। गोरा चेहरा, काली आँखें, तीखे नैन नक्श, एक ऐसा चेहरा जोई कोई एक बार देख ले तोह कभी भूल न सके। वोह उस चेहरे में कहीं खो जाता है।

तभी कोई आके उसके कंधे पे हाथ रखता है। जय तुरंत पलट के देखता है।

"खाना खालें ??" शिवेन्दु पूछता है.

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